जो किसी की नहीं सुनता...




सन १९४९ में एक कक्षाध्यापक ने एक छात्र के अर्धवार्षिक रिपोर्ट कार्ड में लिखा -"अध्ययन के हिसाब से गरडन का यह आधा वर्ष निराशाजनक रहा है। इस दौरान उसकी उपलब्धियाँ असन्तोषजनक रही हैं। उसके द्वारा तैयार सामग्री यह स्पष्ट कराती है की उसने ढंग से अध्ययन नहीं किया है।  उसकी उत्तर पुस्तिकायें फाड़ने योग्य हैं।  उसे कार्यिकी (BIOLOGY) में तो पचास  अंकों में केवल दो अँक मिले  हैं। उसके दूसरे कार्य भी इसी तरह निराशाजनक पाये गए हैं,जिसके कारण उसे अन्य कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ सकता है। वस्तुतः वह किसी की नहीं सुनाता तथा प्रत्येक कार्य को अपने ढँग से करने कि ज़िद करता है। मुझे बताया गया है की वह वैज्ञानिक बनाना चाहता है। उसके वर्तमान को देखकर यह बात हास्यास्पद लगती है की जो छात्र जीव विज्ञान के सामान्य तथ्यों को सीखने में असमर्थ है वह एक विशेषज्ञ कैसे बन सकता है? यह उसे और उसके पढाने वाले दोनों के लिए केवल समय की बर्बादी होगी।" तथापि गरडन ने उस रिपोर्ट को एक फ्रेम में जड़ दिया। वस्तुतः यह छात्र परीक्षा में मिले अंकों के आधार पर अपने ग्रुप में अंतिम स्थान पर रहा, इतना ही नहीं विज्ञानं के अन्य विषयों में भी इसका यही हाल रहा।
                         यह गरडन और कोई नहीं वहीं सर जॉन बर्टरैंड गरडन थे जिन्हे सन २०१२ में शिन्या यामानाका के साथ संयुक्त रूप से कार्यिकी अथवा शरीरक्रियता विज्ञान का नोबल पुरस्कार दिया गया। सर जॉन बर्टरैंड गरडन का जन्म २ अक्टूबर १९३३ को डिप्पेन हॉल हैम्पशायर इंग्लैंड में हुआ था। दरअसल ईटन कॉलेज के बाद गरडन ने  ऑक्सफ़ोर्ड में अपनी डी. फिल. की उपाधि के लिए मेंढक में "केन्द्रक प्रत्यारोपण" सम्बन्धी अध्ययन किये।
सन १९७१ से १९८३  तक वे यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज के एमआरसी लैब. ऑफ़ मॉलिक्यूलर बायोलॉजी में कार्यरत रहे। सन १९६२ में सर जॉन बर्टरैंड गरडन ने पाया की कोशिकाओं की विशिष्टता को बदला जा सकता है। उन्होंने अपने प्रयोग में मेंढक के अण्डे के अपरिपक्व केन्द्रक की कोशिकाओं को आँत की परिपक्व कोशिकाओं के केन्द्रक में बदल दिया। इस तरह की रूपान्तरित कोशिकाओं   से एक सामान्य टेडपोल/शिशु का जन्म हुआ।
इस शोध के चालीस वर्षों पश्चात् वर्ष २००६ में शिन्या यामानाका ने अपने शोध में यह पता लगाया कि किस तरह चूहे की परिपक्व कार्यप्रणाली में परिवर्तन करके उन्हें अपरिपक्व स्टेम कोशिकाओं में बदला जा सकता है। यह संयोग ही है की सर जॉन बर्टरैंड गरडन का नोबल पुरस्कार संबंधी शोध पत्र १९६२ में छपा था तथा उसी वर्ष उनके नोबल पुरस्कार विजेता जापानी साथी शिन्या यामानाका का जन्म  हुआ था। 
                        उन्हें वर्ष १९९५ में "सर" की उपाधि से अलंकृत किया गया तथा उन्हें सम्मान देने के लिये वर्ष २००४ में "वैलकम ट्रस्ट/कैंसर रीसर्च यूके इंस्टिट्यूट फॉर सेल बायोलॉजी एण्ड कैंसर" का नाम गरडन इंस्टिट्यूट कर दिया गया। वे वर्ष २००९ में अलबर्ट लास्कर अवॉर्ड फॉर बेसिक मेडिकल रिसर्च से सम्मानित किये गए।
                         सर गरडन का उदहारण यह स्पष्ट करता है की यदि हम लगन,निष्ठा व कठिन परिश्रम से कोई कार्य करे तो कुछ भी असंभव नहीं है। ध्यातव्य रहे की लगन व निष्ठा से कार्य करे हठपूर्वक नहीं। क्योंकि कबीरदास जी ने भी  कहा है-:
                         ज्यादा हठ न कर बावरे,हठ से काज न होय।                                                                                  ज्यों ज्यों भिजे कामरी ,त्यों त्यों भरी होय।।

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